मानव का रक्त परिसंचरण तंत्र
Biology {Zology} Notes
रूधिर समूह
(Blood Groups):-
मनुष्य में रुधिर एक समान नहीं होता क्योंकि इसमें एक दूसरे से कई प्रकार की भिन्नता हो सकती है रक्ताणुओं की सतह पर पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के प्रतिजन (Antigen)के आधार पर रक्त को कई अलग-अलग समूह में बांटा गया है।
एंटीजन या एग्लुटिनोजन ऐसे पदार्थ होते है जो एंटीबॉडी या एग्लुटिनिन नाम के पदार्थों का निर्माण प्रेरित करते हैं मनुष्य में एंटीजन के दो प्रमुख समूह होते हैं जिन्हें ABO तंत्र तथा RH तंत्र कहते हैं।
1.ए.बी.ओ.-तंत्र (ABO-System):-
ABO तंत्र में दो प्रकार के एंटीजन होते हैं जीन की खोज लैंडस्टीनर की थी। उसने कहा था कि एंटीजन A तथा B रक्ताणुओं की सतह पर पाई जाती हैं। जो ग्लाइकोप्रोटीन होतेे हैं प्लाज्मा में दो प्रकार की एंटीबॉडी Anti-A या a तथा Anti-B या bपाई जाती हैं। मानव जाती के सदस्यों में उपस्थित एंटीजन तथा एंटीबॉडी के अंतर के कारण के चार समूह होते हैं।
यदि किसी व्यक्ति के रूधिर में उससे अलग रुधिर समूह का रूधिर मिला दिया जाता है तो एंटीजन एंटीबॉडी से प्रतिक्रिया के कारण उसके रक्ताणु परस्पर चिपक कर गुच्छे बना लेते है।इस प्रतिक्रिया को आश्लेषण या समूहन कहते हैं।
यदि किसी व्यक्ति को रूधिर समूह मिलान किये बिना ही रूधिर दिया जाए तो उक्त क्रिया के कारण उसकी मृत्यु हो सकती है।
रूधिर समूह के O व्यक्तियों को सार्वत्रिक दाता कहां जाता है क्योंकि इनका रुधिर दूसरे समूह वाले व्यक्तियों को दिया जा सकता है इनके रक्ताणुओं में कोई भी एंटीजन नहीं होने के कारण समूहन नहीं होता है रूधिर समूह एबी वाले व्यक्ति यद्यपि केवल एबी समूह वाले व्यक्तियों कोई रुधिर दे सकती है किंतु यह किसी भी अन्य रुधिर समूह वाले व्यक्तियों से रुधिर ग्रहण कर सकते हैं , इसलिए इन्हें सार्वत्रिक ग्राही कहा जाता है।
रूधिर वर्ग की वंशागति (Inheritance of blood groups)-
बर्न स्टीन ने बताया कि A,B,O रूधिर मनुष्य का आनुवंशिक लक्षण है इस की वंशागति तीन जनों पर निर्भर होती है कैंटीन जाने के विकास एल्फा ए जीन ,B विकास के लिए Alpha B जीन तथा O के लिए Alpha o जीन जिनमें एल्फा ए ओर एल्फा ओ प्रबल होते है।
- रूधिर समूह O (Blood group O)
सार्वत्रिक दाता (प्रतिजन अनुपस्थिति) (Antibody a ,b ) ये A, B, AB,O को रक्त दे सकता है। रक्त ले सकता है केवल O से ही
• रूधिर समूह ए (Blood group A)
Antigen A , Antybody b रक्त देता है A,AB रक्त ले सकता है केवल O,A
•रूधिर समूह बी (Blood group B)
Antigen B , Antibody a रक्त देता है B,AB रक्त ले लेता है O,B
• रूधिर समूह एबी (Blood group AB)
इसे सार्वत्रिक ग्राही कहते है क्योंकि इसमें प्रतिजन (Antigen)A,B दोनों उपस्थित होते हैं ओर प्रतिरक्षी (Antibody) अनुपस्थिति होती है ये सिर्फ AB को ही रक्त देता है लेकिन ग्रहण A,B,AB,O इन सभी से रूधिर ग्रहण करता है।
2.आर .एच तंत्र (Rh System):-
इसकी खोज लैंडस्टिनर एवं वीनर नए रिसस बंदर में की थी। यह तंत्र रक्ताणु सतह पर Rh-एंटीजन की उपस्थिति या अनुपस्थिति पर आधारित है। Rh एंटीजन को Rh- कारक (Rh - factor) भी कहते हैैं। जिन व्यक्तियों के रक्ताणुओं पर Rh-एंटीजन पाया जाता है उन्हें Rh धनात्मक तथा जिनमें इसका अभाव होता है उन्हें Rh ऋणात्मक कहते है। Rh एंटीजन के विरुद्ध प्लाज्मा में प्राकृतिक रूप से कोई एंटीबॉडी नहीं होती है। यदि Rh-व्यक्ति को बार-बार Rh+रूधिर दिया जाता है तो Rh- व्यक्ति में एंटी Rh-एंटीबॉडी उत्पन्न हो जाते हैं इस क्रिया को आइसोइम्यूनाइजेशन कहते हैं क्योकि एंटीजन एवं एंटीबॉडी दोनों एक ही जाति के होते हैं।
यदि Rh-माताएं एक से अधिक बार Rh+शिशु से युक्त गर्भधारण करती है तो Rhकारक के कारण गंभीर समस्या पैदा हो जाती है Rh कारक वंशागत होता है। Rh+प्रभावी तथा Rh-अप्रभावी होता है Rh- माता से उत्पन्न Rh+शिशु पिता से Rh कारक प्राप्त करता है। गर्भस्थ Rh+शिशु से प्रसव के समय Rhएंटीजन माता के रूधिर में प्रवेश कर जाते है माता के रुधिर में इस एंटीजन के कारण एंटी-Rh एंटीबॉडी उत्पन्न हो जाती है सामान्यतः एंटीबॉडी नहीं अधिक मात्रा में नहीं होती है जो प्रथम बार उत्पन्न शिशु को हानि पहुंचा सके लेकिन बाद में गर्भधारण की स्थिति में माता की रुधिर से एंटी Rh एंटीबॉडी अपरा (Placenta) द्वारा गर्भस्थ शिशु के रुधिर में पहुंचकर शिशु के रक्ताणुओं का लयन कर देती है। गर्भस्थ शिशु या नवजात शिशु के इस घातक रोग को इरिथ्रोब्लास्टोसिस फीटेलिस कहते हैं। इस रोग से ग्रसित शिशु को रिसस शिशु कहते हैं।
सामान्य दास का जन्म समय पूर्व होता है तथा इसमें रक्त की कमी होती है। शिशु के संपूर्ण रक्त को स्वच्छ रुधिर द्वारा प्रतिस्थापित कर के शिशु को बचाया जा सकता है प्रसव से ठीक पूर्व लगभग 72 घंटे के भीतर Rh माता को एंटी Rh-एंटीबॉडी का इंट्रावेनस इंजेक्शन देकर भी शिशु को बचाया जा सकता है।
रूधिर का थक्का बनना या रूधिर स्कंदन -
रुधिर वाहिकाओं से बाहर आते ही रूधिर के अवयव एक जैैल समान संरचना में बदल जाते हैं जिसे थक्का (Clot) कहते है। थक्का बनने की प्रक्रिया को स्कंदन कहती है। एक सुरक्षात्मक क्रिया प्रणालीी है जो घाव से रोगाणुओं को शरीर में प्रवेश से रोकती है तथा रुधिर की क्षति को भी रोकती है स्कंदन की क्रिया रुधिर में उपस्थित लगभग 13स्कंदन कारकों पर निर्भर होती है स्कंदन को प्रेरित करने वाले कारकों को प्रेेरक स्कंदन कारक तथा इसे रोकने वाले कारको को प्रतिस्कंदक कहती हैं। जब कोई रुधिर वाहिनी क्षतिग्रस्त होने पर उनसे रुधिर निकलता है तो तब स्कंदन कारक सक्रिय होो जाते हैं एवं एंजाइमों की तरह कार्य करते हैं तथा स्कंदन हो जाता है। स्कंदन क्रिया में फाइब्रिनोजेन, थ्रोंबिन, पट्टीकाणु एवं अन्य कारक महत्वपूर्ण होती है स्कंदन की सामान्य क्रियाा तीन चरणों पूरी होती है।
ऊतक क्षति ---- थ्रोम्बोप्लास्टिन ---पट्टिकाणुओं | का टूटना
|
स्कंदन कारक Vll(Sevan) -स्कंदन कारक X
| Ca+ 2
"प्रोथ्रोम्बिन सक्रियण "
|
Ca+2 |
प्रोथ्रोम्बिन (निष्क्रिय) - | -थ्रोम्बिन (सक्रिय)
|
फाइब्रिनोजन (घुलनशील) ------फाइब्रिन एकलक (अघुलनशील)
/ Ca+2 (फाइब्रिन तंतु जाल +रूधिर कणिकाऐं)थक्का
सार्ट - रूधिर स्कंदन की क्रियाविधि
1. प्रोथ्रोम्बिन को सक्रिय करने वाले कारकों का निर्माण -
रूधिर वाहिनी में बहते हुए रुधिर में विभिन्न स्कंदक कारक निष्क्रिय रूप में होते हैं शक्ति वाहिनी या रुधिर के अवयव क्षतिग्रस्त हो जाती है तब यह कारक क्रमिक रूप में सक्रिय हो जाती है तथा स्कंदन प्रारंभ हो जाता है रुधिर स्राव के समय पट्टिकाणु वायु के संपर्क में आते ही टूट जाते हैं इनसे तथा क्षतिग्रस्त उत्तक से थ्रोम्बोप्लास्टिन मुक्त हो जाता है जिसमें ग्लाइकोप्रोटीन एवं फास्फोलिपिड होते हैं थ्रोम्बोप्लास्टिन VII एवं Xस्कंदन कारकों को सक्रिय कर देता है यह सभी Ca2+ के साथ मिलकर प्रोथ्रोम्बिन सक्रियण बनाते हैं।
2.प्रोथ्रोम्बिन का थ्रोम्बिन में परिवर्तन -
प्रोथ्रोम्बिन प्लाज्मा में पाई जाने वाली प्रोटीन है इसे ''प्रोथ्रोम्बिन सक्रियण'' द्वारा सक्रिय रूप थ्रोम्बिन में बदल दिया जाता है।
3.फाइब्रिनोजन का फाइब्रिन मेंं परिवर्तन एवं थक्का निर्माण -
फाइब्रिनोजन प्लाज्मा में पाई जाने वाली घुलनशील प्रोटीन है थ्रोम्बिन की सहायता से इसका जल अपघटन फाइब्रिन एकलक में हो जाता है जो रेशेदार एवं अघुलनशील होती है फाइब्रिन एकलक तुरंत ही बहुलीकृत होकर लम्बे फाइब्रिन तंतु बना लेते हैं ये तंतु घाव लगने पर परस्पर घाव में जुङकर जाल समान संरचना बनाते हैं जाल में रूधिर केशिकाऐं फस जाती है इस प्रकार फाइब्रिन तंतु एवं रूधिर केशिकाओं से बनी संरचना थक्का कहलाती है पक्का धीरे-धीरे दृढ़ होता जाता है तथा रूधिर स्राव रुक जाता है थक्का बनने के बाद रुधिर का तरल भाग अलग हो जाता है जिसे सीरम कहते हैं सीरम प्लाज्मा के समान होती है लेकिन इसमें फाइब्रिनोजन नहीं होता है सामान्यतः स्कंदन में 6 से 10मिनिट का समय लगता है।
रूधिर वाहिनियां
(Blood vessels)-
जिन नलिकाकार संरचनाओं में रूधिर का प्रवाह होता है उन्हें रुधिर वाहिकाऐं कहते हैं शरीर में तीन तरह की वाहिकाऐं पाई जाती है - धमनी ,शिरा एवं केशिकाऐं होती है पतली धमनियों को धमनिकाऐं तथा पतली शिराओं को शिरिकाऐं कहते हैं हृदय से रुधिर का प्रवाह धमनियों धमनिकाओं ,केशिकाओं ,शिरिकाओं ,शिराओं से होते हुए पुनः हृदय में लाया जाता है। धमनी और शिरा की भित्ति के ऊतकों के तीन स्तर होते है-
1.बाह्म कंचुक (Tunica externa)- यह सबसे बाहर का संयंत्र है जिसका निर्माण संयोजी उत्तक से होता है जिसमें मुख्य अप्रत्यास्थ कोलैजन तंतु होते हैं।
2.मध्य कंचुक (Tunica media)- यह मध्य स्तर है इसमें अरेखित पेशियां वर्तुल रूप में व्यवस्थित होती है तथा इसमें प्रत्यास्थ तंतु भी पाये जाते हैं।
3.अंत:कंचुक (Tunica intima)- यह आंतरिक स्तर जो शल्की उपकला कोशिकाओं से निर्मित होता है इसे अंत: उपकला भी कह सकते है ओर इसकी आंतरिक सतह यानि अंदर की तरफ इसकी सतह कांच के समान चिकनी होती है।
मनीष एवं धमनिकाऐं (Arteries and arterioles)-
हृदय से रुधिर को दूर ले जाने वाले जो वाहिकाऐं होती है वह धमनी कहलाती है इनका मध्यक कंचुक अधिक मोटा होता है तथा आंतरिक व्यास शिराओं से कम होता है इनमें रूधिर का प्रवाह तेजी से तथा अधिक दाब पर होता है ओर इनमें कपाट अनुपस्थित होते है केवल महाधमनी के एवं फुफ्फुस कांड के आरंभिक भाग में अर्ध चंद्राकार कपाट पाये जाते है महाधमनी सबसे बड़ी धमनी होती है दूसरी के सभी भागों में शुद्ध रूधिर ले जाती है फुफ्फुस धमनी फेफड़ों में अशुद्ध रुधिर ले जाती है धमनियों की पतली शाखाएं धमनिकाऐं कहलाती है इनमें अवरोधनी पाई जाती है जो केशिका जाल में रुधिर के प्रवाह को नियंत्रित करती है।
केशिकाऐं (Capillaries)-
यह सबसे पतली रुधिर वाहिकाऐं होती हैं इनका व्यास लगभग 4 से 10 माइक्रोमीटर होता है 0.3 मिमी.से अधिक नही होती है केशिकाओं में रुधिर
बहुत धीमे बहता है रूधिर एवं शरीर की कोशिकाओं के मध्य विभिन्न पदार्थों का विनिमय केशिकाओं द्वारा ही होता है।
शिरा एवं शिरिकाऐं (Veins and venules):-
शरीर के विभिन्न भागों से रूधिर को हृदय की ओर ले जाने वाली वाहिकाओं को शिरा कहते है।
केशिकाओं से रुधिर शिरा की बहुत पतली शाखाओं में बहता है इन पतली शाखाओं को शिरिका कहते हैं शिरिका की भित्ति कौलेजन तंतुओं की पतली परत होती है इनका आंतरिक व्यास धमनी की तुलना में अधिक होता है लम्बी तथा निचले भागों की शिराओं में पूरी लम्बाई में जगह -जगह कपाट पाए जाते हैं। ये रूधिर का विपरीत दिशा में प्रवाह रोकते हैं इनमें रूधिर प्रवाह धीमा तथा कम दाब पर होता है शरीर की सबसे बड़ी शिराऐं उर्ध्व तथा निम्न महाशिराऐं हैं जो अशुद्ध रूधिर को हृदय में लाती है फुफ्फुस शिराऐं शुद्ध रूधिर हृदय में लाती है।
दोहरा रक्त परिसंचरण
(Double Blood Circulation) -
मानव में रूधिर के परिसंचरण को दोहरा परिसंचरण कहते है क्योंकि शरीर में परिसंचरण पूरा होने के लिए रूधिर हृदय में से दो बार गुजरता है। पहले अशुद्ध रूधिर शरीर के विभिन्न भागों से हृदय के दायें भाग में आता है जिसे फेफड़ों में शुद्ध होने के लिए भेजा जाता है। फेफड़ों में शुद्ध होने के बाद रूधिर पुनः हृदय के बायें भाग में आता है जहां से शरीर के विभिन्न भागों में भेजा जाता है।
दो अग्र महाशिराओं तथा एक पश्च महाशिरा द्वारा शरीर के विभिन्न भागों सें रक्त एकत्रित कर दाहिने आलिंद में डाला जाता है। यह रक्त फुफ्फुसीय चाप द्वारा फेफड़ों में पहुंचता है। वहां रक्त का अॉक्सीजनीकरण होता है। फेफड़ों से शुद्ध रक्त फुफ्फुसीय शिराओं द्वारा बायें आलिंद में आता है और वहां से बायें निलय में पहुंचता है। निलय में ग्रीवा -दैहिक चाप द्वारा शरीर के विभिन्न भागों में शुद्ध रक्त पहुंचता है।
दोहरा रक्त परिसंचरण का महत्व
(Significance of double blood circulatioon) -
• अॉक्सीजन युक्त रक्त तथा ऑक्सीजन रहित रक्त हृदय तथा रक्त वाहिनीयों में कभी नहीं मिलता है यानी सदैव पृथक रहता है।
• रक्त शरीर में एक चक्र पूरा करने में हृदय से दो बार गुजरता है पहली बार शरीर का समस्त शुद्ध रक्त दाहिने आलिंद तथा निलय में होकर फेफड़ों में जाता है तथा दूसरी बार फेफड़ों से फुफ्फुस शिराओं द्वारा शुद्ध रक्त बायें आलिंद में फिर बायें निलय में और वहां से एक महाधमनी द्वारा पूरे शरीर में जाता है इस प्रकार हम यह है कह सकते हैं कि एक परिसंचरण चक्र पूरा होने में रक्त हैप्पी से दो बार गुजरता है इसी को दोहरा रक्त परिसंचरण कहते हैं।
• लसीका (Lymph) -
लसीका जो लसीका तंत्र में तरल रूप में बहता है जो रूधिर केशिकाओं में रक्त दाब से छन जाता है और इसे ही लसीका कहते हैं। यह रंगहीन, क्षारीय, संवहन ऊतक है। यह रक्त के प्लाज्मा जैसा ही होता है अंतर सिर्फ इतना होता है कि इसमें कैल्शियम फास्फोरस व प्रोटीन रक्त प्लाज्मा से कम मात्रा में होती है और उत्सर्जी पदार्थ अधिक होती है। लसीका में थ्रोम्बोसाइट्स व लाल रूधिर कणिकाऐं नहीं होती है। इसमें लसीका कोशिकायें या लसीकाणु पाये जाते है।

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